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देवता: अग्निः ऋषि: अग्निः पावकः छन्द: विष्टारपङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः काण्ड:

पा꣣वक꣡व꣢र्चाः शु꣣क्र꣡व꣢र्चा꣣ अ꣡नू꣢नवर्चा꣣ उ꣡दि꣢यर्षि भा꣣नु꣡ना꣢ । पु꣣त्रो꣢ मा꣣त꣡रा꣢ वि꣣च꣢र꣣न्नु꣡पा꣢वसि पृ꣣ण꣢क्षि꣣ रो꣡द꣢सी उ꣣भे꣢ ॥१८१७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पावकवर्चाः शुक्रवर्चा अनूनवर्चा उदियर्षि भानुना । पुत्रो मातरा विचरन्नुपावसि पृणक्षि रोदसी उभे ॥१८१७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पावक꣡व꣢र्चाः । पा꣣वक꣢ । व꣣र्चाः । शुक्र꣡व꣢र्चाः । शु꣣क्र꣢ । व꣣र्चाः । अ꣡नू꣢꣯नवर्चाः । अ꣡नू꣢꣯न । व꣣र्चाः । उ꣣त् । इ꣣यर्षि । भानु꣡ना꣢ । पु꣣त्रः꣢ । पु꣣त् । त्रः꣢ । मा꣣त꣡रा꣢ । वि꣣च꣡र꣢न् । वि꣣ । च꣡र꣢꣯न् । उ꣡प꣢꣯ । अ꣣वसि । पृण꣡क्षि꣢ । रो꣡द꣢꣯सीइ꣡ति꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ ॥१८१७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1817 | (कौथोम) 9 » 2 » 1 » 2 | (रानायाणीय) 20 » 5 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब परमात्मा कैसा है और क्या करता है, यह कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे अग्रनायक जगदीश्वर ! (पावकवर्चाः) पवित्रकारी तेजवाले, (शुक्रवर्चाः) उज्ज्वल और पवित्र तेजवाले, (अनूनवर्चाः) अन्यून तेजवाले आप (भानुना) ज्योति के साथ, उपासकों के अन्तरात्मा में (उदियर्षि) उदित होते हो। (मातरा) माता-पिता के समीप (विचरन्) विचरण करते हुए (पुत्रः) पुत्र के समान (मातरा) द्युलोक और भूलोक में (विचरन्) विचरण करते हुए आप उनकी (उपावसि) रक्षा करते हो। साथ ही (रोदसी) द्युलोक और भूलोक (उभे) दोनों को (पृणक्षि) आपस में संयुक्त करते हो ॥२॥ यहाँ तीसरे चरण में शिलष्ट लुप्तोपमा अलङ्कार है। ‘वर्चा’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर सूर्य के समान अपने दिव्य तेज से स्तोताओं के हृदय को पवित्र करता है, द्यावापृथिवी की रक्षा करता है और उनके मध्य आपस का सामञ्जस्य स्थापित करता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मा कीदृशोऽस्ति किं च करोतीत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे अग्ने अग्रनायक जगदीश्वर ! (पावकवर्चाः) पवित्रकारितेजस्कः, (शुक्रवर्चाः) उज्ज्वलतेजस्कः पूततेजस्कश्च, (अनूनवर्चाः) अन्यूनतेजस्कः, त्वम् (भानुना) ज्योतिषा सह, उपासकानाम् अन्तरात्मम् (उदियर्षि) उद्गच्छसि। (मातरा) मात्रोः मातापित्रोः अन्तिके (विचरन्) भ्रमन् (पुत्रः) तनयः इव (मातरा) मात्रोः द्यावापृथिव्योः (विचरन्) भ्रमन् त्वम् तौ (उपावसि) रक्षसि। अपि च (उभे) द्वे अपि (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (पृणक्षि) परस्परं संयोजयसि। [पृची सम्पर्चने, रुधादिः] ॥२॥२ अत्र तृतीये पादे श्लिष्टो लुप्तोपमालङ्कारः। ‘वर्चा’ इत्यस्यावृत्तौ लाटानुप्रासः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरो हि सूर्यवत् स्वकीयेन दिव्येन तेजसा स्तोतॄणां हृदयं पुनाति, द्यावापृथिव्यौ रक्षति तयोर्मध्ये परस्परं सामञ्जस्यं च स्थापयति ॥२॥